प्रतापगढ़।जिले की राजनीति का सबसे बड़ा सच है जातिवाद। यहां चुनाव जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमता है। नेता जनता को विकास के मुद्दों से जोड़ने के बजाय जातीय गोलबंदी में उलझाते हैं। यही कारण है कि आज़ादी के 79 साल बाद भी जनपद विकास की असली राह पकड़ नहीं पाया।
राजनीतिक दलों की रणनीति से लेकर उम्मीदवारों के चयन तक सबकुछ जातीय गणित पर आधारित होता है। किस जाति के कितने वोट हैं और किस जाति से उम्मीदवार उतारा जाए, यही प्रमुख आधार बनता है। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। सवाल उठता है – क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ जातीय राजनीति है।
जातिवाद की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि जनता भी उसी खांचे में सोचने लगी है। वोट डालते समय अधिकांश लोग जाति देखकर ही बटन दबाते हैं। नेता इस कमजोरी का फायदा उठाकर बार-बार सत्ता में पहुंच जाते हैं। चुनाव के बाद जनता जाति के नाम पर बंटी रह जाती है और विकास पीछे छूट जाता है।
आवास, पेंशन शौचालय और अन्य योजनाओं का लाभ भी अक्सर जातीय समीकरण देखकर ही बांटा जाता है। नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत से पात्र लोग सिर्फ इसलिए वंचित रह जाते हैं क्योंकि वे "सही जाति" से नहीं हैं। यह भेदभाव लोकतंत्र को शर्मसार करता है और जिले को और पिछड़ा बना देता है।
पंचायत से लेकर विधानसभा तक जातीय खींचतान कई बार तनाव और संघर्ष का कारण बनी। परिणाम यह हुआ कि प्रतापगढ़ की राजनीति में विकास का एजेंडा हर बार जातिवाद की दीवार से टकराकर गिर जाता है।
युवा और पढ़ा-लिखा वर्ग मानता है कि जातिवाद ने जिले को बर्बाद कर दिया है। रोजगार, शिक्षा और उद्योग की दुर्दशा इसी जातीय राजनीति की देन है। हालांकि अब धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है और लोग विकास को मुद्दा बनाकर सोचने लगे हैं।
जनपद का पिछड़ापन सिर्फ अपराध और भ्रष्टाचार से नहीं, बल्कि जातिवादी राजनीति से भी गहराई से जुड़ा है। जब तक नेता जातीय राजनीति छोड़कर विकास की राह नहीं पकड़ते और जनता जाति से ऊपर उठकर वोट नहीं करती, तब तक जिले का भविष्य अंधकार में ही रहेगा।